कतरा-कतरा ज़िंदगी टूट रही है
लम्हा-लम्हा मौत की चादर बिच्छ रही है|
खुदगर्ज़ हर इंसान हो रहा है
बेजान हर जवान हो रहा है|
हैवानियत का हर तरफ़ एक खूनी मंज़र है
ज़र्रे-ज़र्रे में लालच का ज़ेहर है|
जहाँ तक जाती है नजर
हर तरफ़ है फक़त इक कहर|
लालच इंसानियत का गरेबान नोच रहा है
सत्ता का अहंकार खुदा को बेच रहा है|
लगता है अब तो उस खुदा की
बर्दाश्त का भी अंत हो रहा है|
अब वो लम्हा दूर नही यकीनन
जब आएगी लहर इक यकीन की
और........
ले जाएगी बहुत दूर बहाकर कहीं
लालच, हैवानियत और अहंकार की
यह दीवार कहीं............
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